Tuesday 13 November 2018

आख़िर कोबरापोस्ट के स्टिंग में कितनी सच्चाई है?

ठाकुरता अपनी उस रिपोर्ट के बारे में बताते हैं, "34 हज़ार शब्दों की रिपोर्ट थी, हमने जिन पर आरोप लगा था उनसे भी बात की थी, उनके जवाबों को भी शामिल किया है. हमने अपनी रिपोर्ट में हर अख़बार का नाम लिखा है, हर मामले की जानकारी दी है. उनके प्रतिनिधियों के जवाब भी लिखे हैं. लेकिन प्रेस काउंसिल ने दस महीने तक उस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं होने दिया."
ठाकुरता ये भी मानते हैं कि उन लोगों ने क़रीब आठ नौ साल पहले जो अध्ययन किया था, वह आज भी उसी रूप में मौजूं बना हुआ है क्योंकि पेड न्यूज़ के लिए मोटे तौर पर वही तौर तरीक़े अपनाए जा रहे हैं.
हालांकि समय के साथ पेड न्यूज़ के तौर तरीक़ों को ज़्यादा फाइन ट्यून किया जा रहा है. इसका दायरा अख़बारों में विज्ञापन और ख़बर छपवाने से आगे बढ़ रहा है. विपक्षी उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों की छवि धूमिल की जा रही है.
जयपुर में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ बताते हैं, "पेड न्यूज़ का कोई स्वरूप तो निश्चित नहीं है, ये कैश भी हो सकता है और काइंड भी हो सकता है. ख़ासकर सरकारी विज्ञापनों और अन्य सुविधाओं के नाम पर सरकारें इसके लिए ज़बरदस्त दबाव बनाती हैं, आप कह सकते हैं कि भगवान से ज़्यादा सरकार की नज़रें अपने ख़िलाफ़ छपने वाली ख़बरों पर होती है."
बीते दिनों कोबरा पोस्ट के स्टिंग में भी ये दावा किया गया कि कुछ मीडिया संस्थान पैसों की एवज़ में कंटेंट के साथ फेरबदल करने को तैयार दिखते हैं.
प्रभात ख़बर के बिहार संपादक अजेय कुमार कहते हैं, "दरअल अब पेड न्यूज़ केवल चुनावी मौसम तक सीमित नहीं रह गया है. आए दिन सामान्य ख़बरों में भी इस तरह के मामलों से हमें जूझना होता है. ये स्थानीय संवाद सूत्र से शुरू होकर हर स्तर तक पहुंचता है."
दुनिया भर में मूल्यों वाली पत्रकारिता को बढ़ावा देने वाले एथिकल जर्नलिज्म नेटवर्क ने 'अनटोल्ड स्टोरीज़- हाउ करप्शन एंड कॉन्फ्लिक्ट्स ऑफ़ इंटरेस्ट स्टॉक द न्यूज़रूम' शीर्षक वाले एक लेख में इस बात पर चिंता ज़ाहिर की है कि अगर भारतीय मीडिया इंडस्ट्री के ताक़तवर समूहों ने अभी ध्यान नहीं दिया तो भारतीय मीडिया में दिख रहा बूम पत्रकारिता और सच्चाई के लिए बेमानी साबित होगी.
दैनिक भास्कर और नई दुनिया अख़बार समूहों में जनरल मैनेजर रहे मनोज त्रिवेदी के मुताबिक, चुनाव के दिनों में अख़बारों में पेड न्यूज़ छपते हैं और इसके लिए राजनीतिक दल और उनके उम्मीदवार भी उतने ही ज़िम्मेदार हैं.
उन्होंने बताया, "दरअसल उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के पास भी चुनाव में ख़र्च करने के लिए ढेर सारा पैसा होता है, लेकिन चुनाव आयोग की सख़्ती के चलते वे एक सीमा तक ही अपना ख़र्च दिखा सकते हैं. लिहाज़ा वे भी अख़बार प्रबंधनों से संपर्क साधते हैं और अख़बार भी उम्मीदवार और राजनीतिक दल के हिसाब से पैकेज बना देते हैं."

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